राधेश्याम विश्वकर्मा
Saturday 30 May 2020
आपन गांव देश का कोरोनटाइन
Tuesday 16 January 2018
समाज सेवा
एक बार एक संत समाज के विकास में अपना योगदान देना चाहते थे। उन्होंने एक विद्यालय आरंभ किया। उस विद्यालय को आरंभ करने का उद्देश्य था कि उनके विद्यालय से जो भी छात्र-छात्राएं पढ़कर निकलें, वे समाज के विकास में सहायक बनें।
एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया और प्रतियोगिता का विषय रखा ‘‘सेवा की सच्ची भावना।’’
प्रतियोगिता के दिन निर्धारित समय पर सभी छात्र-छात्राएं आ गए और प्रतियोगिता आरंभ हुई। सभी प्रतियोगियों ने आकर सेवा पर शानदार भाषण दिए। एक छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों को महत्व देते हुए कहा- हम दूसरों की सेवा तभी कर सकते हैं जब हमारे पास पर्याप्त संसाधन हों।
कुछ छात्रों ने कहा-सेवा के लिए संसाधन नहीं सच्ची भावना का होना जरूरी है। जब परिणाम घोषित करने का समय आया, तब संत ने एक ऐसे छात्र को चुना,
जो मंच पर आया ही नहीं। इससे अन्य विद्यार्थियों और शिक्षकों ने पूछा कि आपने आखिर ऐसा क्यों किया? तब संत ने कहा, ‘‘आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना जो प्रतियोगिता में शामिल ही नहीं हुआ।’’
दरअसल मैं देखना चाहता था कि मेरे छात्रों में से कौन से छात्र ने सेवा भाव को सबसे बेहतर तरीके से समझा है इसलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली रख दी थी। किसी ने उस बिल्ली की ओर ध्यान नहीं दिया। यह अकेला ऐसा छात्र था जिसने वहां रुककर उस बिल्ली का उपचार किया व उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और इस वजह से वह मंच पर नहीं आ सका। संत ने कहा-सेवा भाव तो आचरण में होना चाहिए, जो अपने आचरण से शिक्षा न दे सके उसका भाषण भी पुरस्कार के योग्य नहीं है।
Tuesday 17 October 2017
दिपावली की हार्दिक शुभकामनायें
दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्दका अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति । भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए । कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्तूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय , तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन,सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं।
Wednesday 20 September 2017
आज और कल पर निर्मित समाज
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर विभिन्न प्रकार के जाति, धर्म, समुदाय के लोग मिल कर रहते है और इस एकजुटता की बुनियाद बनती है आदर्शवादिता से ।
आदर्शवादिता की परिभाषा हमारे समाज मे हो रहे अच्छे और बुरे की परख से एवं मनुष्य की चेतना से उबर कर बनता है । हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता आदर्श से मिलकर बनी हुई होती है । मनुष्य अपना आदर्श स्वयं तय करता है, भला या बुरा पर आदर्शवादिता स्वयं मे एक सकरात्मक उर्जा का प्रवाह लेकर चलता है ।
इतिहास मे कई वीर योद्धा, वीरांगनाएँ एवं क्रांतिकारियों ने आदर्श के बल पर फतह हासिल की, वो आदर्श जिसके सहारे वे जीवन के कठिन परिस्थितियों का भी सामना कर गए पर आज हमारे युवा वही नैतिकता एवं आदर्शवादिताको भूलते जा रहे है, ज्ञान अर्जित करने पर भी मानव मूल्य का तिरस्कार कर रहे है और अपनी संस्कृति, संस्कार को सामाजिक बंधन मानकर आजादी की नई परिभाषा गढ़ रहे है ।
आदर्शवादिता स्वयं के लिए नही, समाज के हित के लिए काम करता है, आदर्श पर चलने वाला समाज को जोड़ कर रखता है, एवं एकता का प्रतीक होता है, पर आज का नवयुवक समाज के लिए भ्रम और अपने लिए कर्म करता है । पहले के समय मे परिवार संगठित होकर रहताथा, जिससे की बच्चो एवं युवाओं को रिश्तों की मर्यादा, उसके महत्व का ज्ञान होता था और वे एक अच्छे आदर्शो पर चलकर समाज का हित करते थे पर अब इस बदलते हुए समाज ने रिश्तें की एकजुटता को बंधन का नाम दिया और टूटते रिश्ते को आज़ादी का । पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव कहे या आज के युवा का आत्मकेंद्रित स्वभाव, अब तो वो अपने परिवार तो क्या माता-पिता के साथ भी रहना पसंद नहीं करते । युवा तो क्या बच्चे भी बड़ो के पाँव छूना, उनका आदर करना भूल गए है।
आज के युवा का आदर्श स्वार्थ रह गया है। वो अपनी ही बनाई हुई दुनिया मे जीना चाहते है, “वेक अप सिड ” जैसी मूवीज को देखकर खुद को सिड समझते है, जबकी वास्तविकता इन सबसे भिन्न होती है, समयानुसार सबकी परिस्थितियाँ अलग होती है ।
अजीब विडंबना है ये, कि जहाँ ज्ञान का अर्थ सोच को एक नई दिशा देना होता है वही पर आज की सोच दूसरे की सभ्यता से प्रभावित होकर बनी हुई होती है। आज का युवा अपने समाज के संस्कृति, सभ्यता को सहेजने के बजाय उसका तिरस्कार कर रहा है। उसे अब ना अपनी भाषा का ज्ञान है, ना अपने लोगो के दर्द का, बस याद है तो वो चकाचौंध रोशनी जिसे पाकर वो अपनी पहचान बनाना चाहता है परंतु स्वयं गुम हो जाता है ।
Monday 13 June 2016
सामाजिक संगठन की महत्ता
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है ! समाज के सहयोग के बिना कोई भी व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता है ! मनुष्य के उन्नति और विकास में बहुत से लोगो का हाथ होता है ! जिन लोगो की आज कीर्ति और ख्याति देखने को मिलता है, उसके पीछे समाज के लोगो का सहयोग रहा है !
मनुष्य को प्रकृति ने ऐसा बनाया है की वह समाज से अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता ! मनुष्य के बच्चे को जन्म लेते ही उसे विशेष सेवा सुश्रुवा की आवश्यकता होती है, जबकि पशु के बच्चे को माता के थोड़े से सहयोग मिल जाने से वह आत्मनिर्भर हो जाता है !
सामाजिक संगठन को मजबूत करने के लिए लोगो में त्याग, सेवा, समर्पण, सहयोग और समय दान की विशेष आवश्यकता पड़ती है ! विश्वकर्मा समाज के संगठन को मजबूत करने के लिए लोगो को अहम् की भावना को त्याग करना होगा ! समाज में हमें छोटे-बड़े के भाव से ऊपर उठकर सोचना होगा ! वर्तमान समय में हमारे देश में प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के माध्यम से शासन चल रही है ! उसी प्रकार जिस भी व्यक्ति को समाज का नेतृत्व प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है, उसके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर सामाजिक संगठन को मजबूत करने में सहयोग देना चाहिए !
अगर विधान सभा और लोक सभा में अपने समाज के लोगो को भेजने का ठान लें तो कोई असंभव बात नहीं होगी, किन्तु हमारे समाज के लोगो में आपसी सहयोग की भावना का अभाव दिखाई पड़ता है ! समाज के प्रबुध्दजन और वरिष्ठजनों को इस पर चिंतन करना होगा !
समाज के लोगो को मिलकर यह प्रयास करना होगा की हमें कैसे विधान सभा या लोक सभा में नेतृत्व करने का मौका मिल सकता है ! कहते हैं की एकता में ताकत होती है, यदि लकड़ी के छोटी-छोटी छड़ियों को एक गट्ठा का रूप दे दिया जाये तो किसी भी शक्तिशाली व्यक्ति को उसे तोड़ पाना संभव नहीं है ! उसी प्रकार सामाजिक बंधुओं को हमारे समाज के लोगो के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में उन्नति और विकास के लिए तन-मन-धन से सहयोग करना चाहिए !
समाज के बहुत सरे ऐसे प्रतिभावान बच्चे जिनका एम.बी.बी.एस., आई.आई.टी., इंजीनियरिंग जैसे कोर्स में सलेक्शन हो जाने के बाद पैसा के अभाव में माता-पिता अपने बच्चे को एडमिशन नहीं करा पाते, ऐसे लोगो का सहयोग समाज के पूंजीपति लोगो को करना चाहिए ! मानव सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं है ! हमें सेवा भाव से किसी की सेवा करना चाहिए !
हमारा समाज जिस प्रकार से शैक्षणिक दृष्टिकोण से मजबूत होता जा रहा है ! उसी गति से समाज में विवाह के समय लेन-देन बढ़ता जा रहा है ! दहेज़ मांगने की प्रवृति बढ़ रही है ! जो हमारे समाज के संगठन को कमजोर बना रहा है ! हमें चिंतन करना होगा यदि विवाह के समय सुसंस्कारित लड़की मिलती है तो वह दहेज़ लेन से कई गुना उस घर परिवार को लाभ पंहुचा सकती है ! समाज के लोगो को भी इस बात पर चिंतन करना होगा ! लड़की और लड़का में किसी प्रकार का भेद न करते हुए दोनों को बराबर शैक्षणिक विकास में माता-पिता को खर्च करना चाहिए !
Sunday 1 May 2016
भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार का शब्दिक अर्थ है – ‘बिगड़ा हुआ आचरण’ अर्थात् वह आचरण या कृत्य जो अनैतिक तथा अनुचित है । आज देश में भ्रष्टाचार की जड़ें अत्यधिक गहरी होती जा रही हैं । यदि समय रहते इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो यह समूचे तंत्र को अव्यवस्थित कर सकता है ।
भ्रष्टाचार के कई कारण हैं । सबसे प्रमुख कारण है मनुष्य में असंतोष की प्रवृत्ति । मनुष्य अपने वर्तमान से संतुष्ट नहीं हो पाता है । वह सदैव अधिक पाने की लालसा रखता है । बहुत कम लोग ही ऐसे हैं जो अपनी इच्छाओं और क्षमताओं में संतुलन रख पाते हैं । ये लोग अपनी इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर भी संतुलन नहीं खोते हैं ।
परंतु बहुत से लोग अपनी आकांक्षाओं और अपने वर्तमान में सामजस्य स्थापित नहीं कर पाते हैं । उनकी लोलुपता इतनी तीव्र हो उठती है कि वे अनैतिकता के रास्ते पर चलकर भी इच्छा पूर्ति में संकोच नहीं करते हैं । अंतत: इससे भ्रष्टाचार उत्पन्न होता है । मनुष्य की यह लोलुपता आर्थिक अथवा सामाजिक किसी भी स्तर की हो सकती है ।
कुछ लोगों में सम्मान अथवा पद की आकांक्षा होती है तो कुछ में धन की लोलुपता । इस प्रकार असंतोष और लोलुपता के कारण ही वे न्याय-अन्याय में अंतर नहीं कर पाते हैं तथा भ्रष्टाचार की ओर उत्सुख हो जाते हैं । भाषावाद, क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता, जातीयता आदि भी भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते हैं ।
भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं । चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, दलबदल, जोर-जबरदस्ती आदि भ्रष्टाचार के ही रूप हैं । भ्रष्टाचार वर्तमान में एक नासूर बनकर समाज को खोखला करता जा रहा है । धर्म का नाम लेकर लोग अधर्म को बढ़ावा दे रहे हैं । हर ओर कुरसी के लिए लोग प्रयासरत हैं । आज दोषी व अपराधी धन के प्रभाव में स्वच्छंद होकर घूम रहे हैं । धन-बल का प्रदर्शन, लूट-पाट, तस्करी आदि आम बात हो गई है ।
भ्रष्टाचार का हमारे समाज और राष्ट्र में व्यापक रूप से असर हो रहा है । संपूर्ण व्यवस्था में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई । परिणामत: समाज में भय, आक्रोश व चिंता का वातावरण बन रहा है । राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक व प्रशासनिक आदि सभी क्षेत्र इसके दुष्प्रभाव से ग्रसित हैं ।
यह हमारी व्यवस्था में इस प्रकार समाहित हो चुका है कि आज इसे दूर करना प्रत्येक राष्ट्र के लिए लोहे के चने चबाने जैसा हो गया है । आजकल तो सेना में भी भ्रष्टाचार फैल रहा है जिसके कारण देश की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लग गया है ।
भ्रष्टाचार किसी व्यक्ति विशेष या समाज की नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र की समस्या है । इसका निदान केवल प्रशासनिक स्तर पर हो सके ऐसा संभव नहीं है । इसका समूल विनाश सभी के सामूहिक प्रयास के द्वारा ही संभव है । इसके लिए केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन भी नितांत आवश्यक है ।
प्रशासनिक स्तर पर यह आवश्यक है कि भ्रष्टाचार के आरोपी व्यक्तियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही हो । इसके लिए आवश्यक है कि प्रशासन कठोर, चुस्त तथा निष्पक्ष हो । हमारी व्यवस्था इतनी सुदृढ़ हो कि अपराधियों को उनके किए की सजा मिल सके भले ही वह किसी पद पर आसीन हो ।
सामाजिक स्तर पर यह आवश्यक है कि हम ऐसे तत्वों को बढ़ावा न दें जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं या उसमें लिप्त हैं । यह आवश्यक है कि उन्हें हम मुख्य धारा से अलग कर दें जब तक कि वे नीति के मार्ग पर नहीं चलने लगें ।
व्यक्तिगत स्तर पर यह आवश्यक है कि हम यह समझें कि समाज से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने का उत्तरदायित्व हम पर ही है । तब निस्संदेह हम भविष्य में भ्रष्टाचार रहित समाज की कल्पना कर सकते हैं ।
भ्रष्टाचार के पूर्णतया उन्मूलन से पूर्व हमें इस पर विचार करना होगा कि वे क्या कारण हैं जिसके फलस्वरूप समाज के धनाढ़य एवं सुशिक्षित उच्चपदासीन व्यक्ति अधिक संख्या में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ।
क्यों एक प्रशासनिक अधिकारी जबकि उसे पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ उपलब्ध हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में औरों से कम नहीं है । जाहिर है, कहीं न कहीं हमारी शिक्षा-प्रणाली खामियों से परिपूर्ण है तथा सामाजिक नैतिकता का दिनों-दिन ह्रास हो रहा है ।
भ्रष्टाचार विधेयक 2015 जिसमें भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए बनाया गया विधेयक हैं।
जिसे पास करने का वीणा श्री सुदर्शन प्रसाद विश्वकर्मा जी अपने कंधों पर लादे पूरे भारत का भ्रमण सायकिल पर कर रहे हैं और जनमानस को जगाते हुये हर जिले के जिलाधिकारी को भ्रष्टाचार के खिलाफ ज्ञापन सौंपा रहे जो की काबिले तारीफ है।
हम सभी को गर्व है हम सभी एक ऐसे विशिष्ट व्यक्ति से जुड़े हैं जो अपने परिवार को छोड़ देश के लिए देश की जनता के लिए अपने आप को देश के प्रति समर्पित कर दिया है।
हम श्री सुदर्शन प्रसाद विश्वकर्मा जी को उनके मिशन को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करने की कोशिश करते हुए उन्हे बधाई देते हैं...
जय हिंद जय भारत
🇮🇳वन्दे मातरम्🇮🇳
💢राधेश्याम विश्वकर्मा मुंबई 💢
Monday 25 April 2016
गृहस्थ दुख के मूल कारण
जब भारत में वैदिक संस्कृति यौवन पर थी,तब भारत के वे दिन सुनहरे दिन थे;तब गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का सरताज था।तब विवाह के सम्बन्ध में यह हीन भावना नहीं थी कि विवाह क्या है?उम्र-कैद और कमाई जुर्माना।परन्तु मिथ्या और अधूरे वैराग्य के कारण तथा वेद मर्यादा के लोप हो जाने से आज गृहस्थाश्रम को दुःख-सागर कहा जाने लगा है।परन्तु वैदिक काल में गृहस्थाश्रम की बड़ी महिमा थी।गृहस्थ को ब्रह्म-प्राप्ति में बाधक नहीं साधक समझा जाता था।बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि जो ब्रह्म-विद्या के आचार्य थे,वे गृहस्थी थे।राजा जनक,राजा अश्वपति,योगी याज्ञवल्क्य,सब गृहस्थी थे।फिर गृहस्थ के सम्बन्ध में मिथ्या भावना कैसे जागी?
(1) सबसे पहला कारण है-यह हीन विचिर कि जगत् मिथ्या है।चलो,मिथ्या ही समझ लिया था तो फिर मिथ्या का संग्रह नहीं करना था।दोनों बातें साथ-साथ क्यों रक्खी गई?
(2) दूसरा कारण यह है कि मानव-जीवन के उद्देश्य को ही भूला दिया गया।वाम-मार्ग ने यह प्रचार किया-खाओ,पिओ और मौज उड़ाओ।
(3) तीसरा यह कि गृहस्थी को भोग-विलास का आश्रम समझ लिया गया।
(4) चौथा कारण यह कि धन को ही मुख्य स्थान दे दिया गया।
(5) पाँचवा कारण यह कि कन्या-जन्म पर शोक-दुःख मनाया जाने लगा।एक मित्र ने दूसरे मित्र से पूछा-'कहिये,क्या हाल है?"
मित्र कहने लगा-'भाई,क्या पूछते हो ! पचास हजार रूपये की डिग्री मेरे ऊपर हो गई है।'
मित्र ने पूछा-'कैसे ?'उत्तर मिला,'घर में कन्या पैदा हो गई है।'
(6) और सबसे बड़ा कारण है-दृष्टिकोण का बदल जाना।
अब तो केवल एक ही विचार सामने रहता है:-धन-दौलत एकत्र करने का।किसी युवक से पूछिये-'इतना कष्ट उठाकर पठन-पाठन में क्यों लगे हो?'उत्तर होगा-'अच्छी नौकरी मिलेगी।व्यापार में सहायता मिलेगी।किसी अच्छे परिवार की सुन्दर कन्या मिल सकेगी।'
किसी युवती से प्रश्न कीजिए-'स्वास्थय बिगाड़कर भी दिन-रात क्यों पढ़ रही है?'
उत्तर उसी प्रकार का होगा कि धन कमाने के लिए।
भारत के कितने ही परिवारों से पूछो कि तुम लड़कियों को ईसाई-स्कूलों में क्यों पढ़ाते हो?उत्तर होगा-कान्वैंट में पढ़ी लड़की को बड़े घरों वाले पसंद करते हैं और अच्छे वर मिलते हैं।हिन्दुओं में विशेष रुप से धन की प्रधानता हो गई है।
अब तो सहशिक्षा तथा दूसरे कितने ही साधनों से लड़कियों ने Boy Friends और लड़कों ने Girl Friends बनाने शुरु कर दिये हैं।ऐसी मित्रता का प्रारम्भ होता ही कामवासना से है।यह वास्तविक मित्रता और शुद्ध प्रेम तो होता नहीं और उद्देश्य भी वही होता है।इसलिए विवाह हो जाता है।
ऐसे विवाह होने के पश्चात् कुछ लोग तो जैसे-तैसे निभाते चले जाते हैं और कुछ पछताने लगते हैं।कामवासना का भूत सिर से उतरने लगता है तो पति-पत्नि को एक-दूसरे की बातें चुभने लगती हैं।
इस परिवर्तन में गृहस्थ को दुःख का सागर कहा जाने लगा है।पश्चिमी सभ्यता ने भारत पर जादू कर रक्खा है।चूंकि पश्चिम में विवाह से पूर्व ही मित्र बनाने का कार्य होता है और इधर भारत में भी कुछ अवस्था ऐसी ही हो रही हैं।
भारत में यह प्रथा थी कि विवाह पहले होता था और मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती थी जो मृत्यु-पर्यन्त बढ़ती चली जाती थी।पश्चिम वाले पहले मित्रता करते हैं और फिर विवाह करते हैं और उनकी मित्रता कम ही होती चली जाती है।
इंगलैण्ड से एक मानसिक पत्रिका 'साइकालोजी' प्रकाशित होती है।उसमें यह लिखा था कि गत वर्ष इंग्लैण्ड तथा वेल्ज़ में अपनी पसन्द के तीन लाख पचिस हजार विवाह हुए,जिनमें से एक लाख सोलह हजार थोड़े ही समय में टूट गये।मित्र बनाकर किए हुए विवाहों की यह दशा देखकर भी भारत शिक्षा नहीं लेता।
विवाह से पूर्व मित्र बनाने की प्रथा और भी बुरे परिणाम पैदा कर रही है।इसी पत्रिका 'साइकालोजी' में लिखा है कि पिछले एक वर्ष में इंग्लैण्ड तथा वेल्ज़ में ३७ हज़ार कुमारी लड़कियों के बच्चे हुए।
क्या ऐसी बातें गृहस्थ में अधिक दुःख नहीं बढ़ा देंगी?दुनिया बड़ी बदल गई है।भारत को भी बदलना चाहिए;परन्तु हानिकर बातों की नकल से तो दुःख की मात्रा बढ़ती ही जाएगी।
अब तो पश्चिमी सभ्यता को अपनाने वाले विवाह को एअ प्रकार का व्यापार समझते हैं।विवाह के बहाने धन कमाओ,साथ ही कामवासना की भी तृप्ति करो।परिणाम क्या हो रहा है?-
(1) पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए भी बिना भारी धन दिये वर नहीं मिलते।
(2) चूंकि धन को मुख्य पदार्थ समझा जाने लगा है,इसलिए लड़कियाँ भी धन कमाने में अधिक ध्यान देने लगी हैं।अधिक धन की आवश्यकता के कारण लड़कियों को भिन्न-भिन्न कार्यालयों में भटकना पड़ता है।नौकरी के लिए फिसलने पर मजबूर हो जाने की दुर्घटनाएँ भी सुनी जाने लगी हैं।
(3) इस अवस्था को देखकर सहशिक्षा तथा अधिक मिलन और सिनेमा इत्यादि के प्रभाव से अब Boy Friend तथा Girl Friend बनाने की और रुचि बढ़ने लगी है व चारित्रिक पतन तेजी से हो रहा है।
(4) मित्र बनाने में एक ही बात देखी जाती है और वह है सौन्दर्य का आकर्षण और साथ ही बिना धन व्यय किये विवाह।शेष और कोई बात नहीं देखी जाती,न कुल,न स्वभाव,न गुण,न कर्म,न चरित्र।
ऐसे विवाह अन्त में दुःख ही के कारण होते हैं।
स्वामी दयानन्द ने शास्त्रों के प्रमाण से 'संस्कार-विधि' में लिखा है कि-
"वधू और वर की आयु,कुल,वास्तव्य-स्थान,शरीर,स्वभाव की परिक्षा अवश्य करें अर्थात् दोनों सज्ञान और विवाह की इच्छा करने वाले हों।स्त्री की आयु से वर की आयु न्यून-से-न्यून ड्योढ़ी और अधिक-से-अधिक दूनी होवे।परस्पर कुल की परिक्षा भी करनी चाहिए।"
और मनुजी ने तो कितनी प्रबल बात 'मनुस्मृति' के अध्याय नौ में कह दी है कि" चाहे लड़का-लड़की मरण-पर्यन्त कुँवारे रहें परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर-विरुद्ध गुण,कर्म,स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिए।"
और आजकल गुण,कर्म,स्वभाव न देखकर केवल धन और रुप ही देखा जाता है।इसलिए आजकल गृहस्थाश्रम दुःखों से भरपूर हो गया है।
वेद तो ये कह रहे हैं कि गृहस्थ सुख,आनन्द,परोपकार और लोक-परलोक सुधारने के लिए है।मानव-जीवन-यात्रा लम्बी है,दो साथी मिल जाएँ तो यात्रा सरलता से हो सकती है।और अब इस आश्रम का उद्देश्य ही कुछ और हो गया है।आज के गृहस्थों के दुःख का बुनियादी कारण गुण,कर्म,स्वभाव देखे बिना विवाह करना है।
दुःख का दूसरा कारण:-
संस्कार में जो सप्तपदी-क्रिया है,उसमें पत्नि वर के साथ सात कदम चलती है।सातवें पग पर पति पत्नि को 'सखे' शब्द से सम्बोधित करता है अर्थात् अब दोनों मित्र और सखा बन गये हैं।अतः गृहस्थाश्रम में दोनों का परस्पर व्यवहार मित्रों जैसा होना चाहिए।
लड़के-लड़की में मित्रता का आरम्भ यहाँ से होता है;पढ़ते हुए कालेज या सिनेमा में नहीं होता।गृहस्थ में प्रवेश करने पर जब पत्नि को ऐसा व्यवहार नहीं मिलता तो द्वेष तथा दुःख की आग सुलग पड़ती है।अपने माता,पिता,भाई तथा सारे सम्बन्धियों से पृथक होकर नारी इसलिए पति-गृह में आती है कि उसे एक मित्र मिल गया है।जब वह मित्रता के स्थान पर क्रूरता और दुर्व्यवहार देखती है तो उदास रहने लगती है।
दुःख का तीसरा कारण स्वार्थ है।जो गृहस्थाश्रम को निस्सन्देह नरक बना देता है।चूंकि यह युग ही अपना प्रभुत्व बढ़ाने,अपनी 'मैं' को ऊँचा करने का है-'मुझे सुख मिलना चाहिए;मुझे किसी के अधीन न होना पड़े;दूसरे सुखी हों या दुःखी,मुझे क्या !'यह निकृष्ट स्वार्थ की भावना गृहस्थाश्रम को दुःखी बना रही है।व्यक्ति या व्यष्टि की अपनी स्वार्थ-सिद्धि ने देश को,जाति को,परिवारों को,सबको दुःखी कर रक्खा है।
सारी दुनिया के दुःख का और परिवारों के दुःख का यह एक बहुत बड़ा कारण है।
दुःख का चौथा कारण है 'सहनशीलता का अभाव'।गृहस्थाश्रम में परिवार में प्रीति,संगठन और प्रेम बनाए रखने के लिए सहनशीलता अत्यन्त आवश्य है।बहुतेरे झगड़े इसीलिए शुरु हो जाते हैं कि परिवार में एक-दूसरे की बात सहन नहीं की जाती।
दुःख का पाँचवाँ कारण है 'अति कामवासना'।गृहस्थाश्रम स्वाभाविक कामवासना को मर्यादा में रखने का एक उत्तम साधन है।विवाह का मतलब यह नहीं कि अपना तथा पत्नि का सर्वनाश करने का परमिट मिल गया है।जो पति-पत्नि संयम से रहते हैं उनका प्रेम दिनों-दिन बढ़ता जाता है और जो अपनी इस वासना को तृप्त करने में अति करते हैं उनमें चिड़चिड़ापन,क्रोध,रोग तथा मनमुटाव उभरने लगते हैं।जो पति-पत्नि ऋतुगामी और शास्त्र आदेश के अनुसार चलते हैं उनमें केवल प्रेम ही नहीं,आदर-मान भी बढ़ता है।वे हर समय रोगों के शिकार नहीं बने रहते।